Nithalle ki Diary
चैत्र, कृष्णा पक्ष , ग्यारस
विक्रम समवत 2078
रात्रि 11:18
और आज फिर हिंदी साहित्य की एक अप्रतिम करती पढ़ी और पढ़ते ही मैं भौचक्का रह गया की कैसे 1968 में लिखी गयी ये उपन्यास आज के वक़्त में भी एकदम सही बैठती है| क्या भारत में कुछ बदला ही नहीं या पहले के लेखक बहुत ही ज्यादा दूरदर्शी थे | 2021 में आज जब मैं ये पढ़ रहा था तो मुझे लगा की हरिशंकर परसाई जी आज मेरे ही सामने मेरे ही समाज के बारे में ये सब लिख रहे है | एक एक शब्द और हर एक वाक्य जो सच बैठता है इस 21वी सदी को लेकर और आज के भारत को लेकर | हास्य व्यंग और राजनीति को लेकर कटाक्ष करने के साथ साथ हरिशंकर परसाई जी ने जो भी लिखा है वो मैं अपने शब्दों में अगर समझाने की कोशिश करूँगा तो वो व्यर्थ ही रहेगी, और अगर कुछ समझा भी पाया तो अर्थ का अनर्थ कर दूंगा | तो बेहतर यही होगा की निठल्ले की डायरी आप सब अपने आप ही पढ़े|
मैं बस इतना बता देता हूँ की मुझे इस किताब में क्या अच्छा लगा |
१. जिस तरीके से निठल्ले एक व्यक्ति विशेष को समझाया है वो समझ में आता है की किसी आम इंसान की बात हो रही है जो इस समाज में समझ नहीं पा रहा है की कोनसे कर्म करने है की जिंदगी अच्छे से कटे; या फिर करने भी है या नहीं |
२. बहुत ही खूबसूरत तरीके से बताया गया है की कैसे पुल निर्माण और राष्ट्र विकास का नाता है |
३. चमचो की एक छवि जो प्रस्तुत की वो काबिल ऐ तारीफ़ रही की किस तरीके से चमचा एक नेता को बढ़ा भी देता है और बिगाड़ भी |
४. आदमी के सुलझे होने और गौरक्षा पर भी की गयी बात मेरे दिल को छू गयी है|
और भी बहुत सी बातें रही लेकिन ये प्रमुख थी |
मैं चाहूंगा की आप खुद राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित “निठल्ले की डायरी” को पढ़े और देखे की कैसे भारत बिलकुल नहीं बदला है |
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